देव दीपावली का पर्व काशी की आध्यात्मिक पहचान से गहराई से जुड़ा है। हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा की रात जब गंगा किनारे हजारों दीप जलते हैं, तो पूरा शहर किसी दिव्य लोक जैसा प्रतीत होता है। इस दिन को देवताओं की दीपावली इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसका संबंध भगवान शिव द्वारा त्रिपुरासुर नामक दैत्य के वध से है। प्राचीन पुराणों के अनुसार, असुर तारकासुर के तीन पुत्र – तरकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली – ने तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया था। इस वरदान के बल पर उन्होंने सोने, चांदी और लोहे के तीन नगर बनाए, जो आकाश में विचरण करते थे और जब ये तीनों नगर एक साथ किसी विशेष नक्षत्र में आते, तभी उन्हें नष्ट किया जा सकता था। यही कारण था कि वे देवताओं और ऋषियों के लिए अभिशाप बन गए। उनके अत्याचारों से त्रस्त होकर सभी देवता ब्रह्मा, विष्णु और अंततः शिव के शरण में पहुंचे। तब भगवान शिव ने ब्रह्मास्त्र रूपी दिव्य बाण धारण किया और कार्तिक पूर्णिमा के दिन एक ही प्रहार में त्रिपुरासुर का संहार किया। इस विजय के बाद देवताओं ने प्रसन्न होकर काशी नगरी में दीप जलाकर उल्लास मनाया और तभी से इसे देव दीपावली के रूप में मनाने की परंपरा शुरू हुई।
घाटों की भव्य परंपरा और अहिल्याबाई होलकर का योगदान
काशी में देव दीपावली का आयोजन केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। ऐसा माना जाता है कि 18वीं सदी में मराठा साम्राज्य की महान रानी अहिल्याबाई होलकर ने इस परंपरा को जीवित रूप दिया। उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया और पंचगंगा घाट पर दीप प्रज्वलित कर इस उत्सव को सार्वजनिक स्वरूप दिया। उनके इस कदम के बाद घाटों पर दीप जलाने की परंपरा धीरे-धीरे पूरे बनारस में फैल गई। बाद में काशी नरेश महाराज विभूति नारायण सिंह ने इस आयोजन को और भव्य रूप देने की पहल की। उन्होंने न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से इसे प्रोत्साहित किया बल्कि स्थानीय प्रशासन और जनसहभागिता के माध्यम से घाटों को सजाने, दीपदान आयोजित करने और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की शुरुआत कराई। आज यह आयोजन केवल धार्मिक श्रद्धा तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह बनारस की सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यटन पहचान का अभिन्न हिस्सा बन चुका है।
आस्था, संस्कृति और पर्यटन का संगम बना काशी का यह पर्व
हर साल कार्तिक पूर्णिमा की रात गंगा के तट पर जब हजारों दीप जलते हैं, तो पूरा वातावरण मंत्रमुग्ध कर देता है। इस अवसर पर गंगा आरती, संगीत कार्यक्रम और पारंपरिक नौकायन यात्राएं काशी की अद्भुत छटा को प्रदर्शित करती हैं। श्रद्धालु मानते हैं कि इस दिन गंगा स्नान, दीपदान और भगवान शिव की आराधना से पापों का नाश होता है और मनुष्य को दिव्य लोक की प्राप्ति होती है। देव दीपावली के अवसर पर न केवल देश भर से, बल्कि विदेशों से भी पर्यटक काशी आते हैं। वाराणसी के घाटों पर गंगा की लहरों के साथ बहते हजारों दीप आशा, श्रद्धा और प्रकाश का प्रतीक बन जाते हैं। स्थानीय कारीगर, कलाकार और नाविक इस आयोजन से अपनी आजीविका भी जोड़ते हैं, जिससे यह पर्व न केवल धार्मिक, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी काशी के लिए महत्वपूर्ण हो गया है। यह दिन इस बात का प्रतीक है कि अंधकार चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, प्रकाश और आस्था हमेशा विजयी रहती है। भगवान शिव की त्रिपुरासुर पर विजय की यह कथा हर वर्ष हमें यह स्मरण कराती है कि अच्छाई की जीत ही सच्चा उत्सव है, और काशी की देव दीपावली उसी दिव्यता की चमक को पुनः जीवित करती है।




