उत्तरी भारत के अलग-अलग जिलों में दर्ज गंभीर हत्याओं की श्रृंखला तब सार्वजनिक ध्यान में आई जब रिश्तेदार और पत्रकार गायब होने की शिकायतें लेकर थानों पहुँचे। जांच में सामने आया कि आरोपित-राम निरंजन उर्फ़ राजा कोलंदर-के पास ऐसी आदतें और विश्वास थे जिनसे उसके कृत्य और भी भयावह बने: वह अलग-अलग समुदायों के लोगों के सिर काटकर उनकी खोपड़ियों को अपने पास रखता और कुछ घटनाओं में उन्हें उबालकर “सूप” पीने का दावा करता था। राजा का दावा था कि अलग जाति-समुदायों के खोपड़ी या खून से विशेष तरह की शक्ति, बुद्धि या धूर्तता मिलती है – यह अंधविश्वास और विकृत मानसिकता उसके कत्लों की बुनियाद बनी। कानून-व्यवस्था के रिकॉर्ड और पुलिस रिमांड में दी गई बातों के मुताबिक यह सनक केवल व्यक्तिगत पागलपन नहीं थी, बल्कि उसके द्वारा की जाने वाली योजनाबद्ध हत्याओं का प्रेरक तत्व थी। राजा की डायरी और पौगीरी फॉर्म से बरामद सामानों में नरकंकाल, खोपड़ियाँ और पेट्रोल-इत्यादि के निशान मिले, जिसने पुलिस जांच को साबित करने लायक सबूत दिए कि यह कत्ल एक सोच-समझकर की गई सीरीज़ थी न कि अवसरवादी वारदातें।
गायबियां, चीखें और खुलासे: मनोज-रवि, धीरेंद्र और अन्य पीड़ितों की पथरीली कहानी
मामलों के केंद्र में सबसे पहले वे लोग आए जिनके लापता होने से परिजनों ने थानों का रुख किया – मनोज और उसका ड्राइवर रवि, पत्रकार धीरेंद्र सिंह, और कई अन्य नाम जो बाद में राजा की डायरी में सूचीबद्ध हुए। घटनाओं का सामान्य पैटर्न कुछ ऐसा था: टाटा सूमो या दूसरी गाड़ियों के माध्यम से पीड़ितों को कुछ बहाने पर बुलाया जाता, फिर कोई सत्यापन न होने पर उनका सबूत मिटा दिया जाता और शवों को दूर-दूर जंगलों या खेतों में फेंक दिया जाता। इलाहाबाद-रीवा-रायबरेली के बीच जो लापता वारदातें जुड़ीं, उनमें कुछ शव अस्थायी पहचान के बाद भी इतने क्षत-विक्षत पाए गए कि पहचान कठिन हो गई। पत्रकार के गायब होने पर समुदाय और मीडिया ने दबाव बनाया, जिससे जांच तीव्र हुई और नतीजा निकला कि सिर्फ एक-या-दो हत्याएँ नहीं, बल्कि क्रमिक हत्याओं की श्रृंखला चल रही थी। जांच ने जब राजा के ठिकानों और पिगरी फॉर्म की खुदाई की तो कई नरकंकाल और खोपड़ियाँ बरामद हुईं – कुछ खोपड़ियों को रंगा हुआ भी पाया गया, जबकि कुछ पर कथित ‘रहस्यमय’ प्रयोगों के संकेत मिले। इन खुलासों ने समाज में भय पैदा कर दिया और पीड़ित परिवारों की वकालत से मुकदमों की सूची लंबी हो गई।गिरफ्तारी, अदालत और सजा: न्यायिक प्रक्रिया व भावनात्मक स्थगन
अखिल भारतीय जांच और स्थानीय पुलिस के संयोजन से राजा कोलंदर को पकड़ा गया और उसके साथियों-जिनमें बच्छराज भी शामिल था-के खिलाफ कठोर कार्रवाई हुई। पूछताछ और सबूतों के आधार पर राजा ने कई हत्याओं का स्वीकारोक्ति-सा खुलासा किया; उसने न केवल कत्लों की बात मानी बल्कि अपनी सनकी मान्यताओं का भी खुलासा किया कि किस तरह उसने ‘बुद्धि’ और ‘ताकत’ के लिए लोगों को मारकर उनके अंगों का प्रयोग किया। कोर्ट की कार्यवाही लंबी और संवेदनशील रही – अभियोजन पक्ष ने अपराधों के तार्किक और फॉरेंसिक साक्ष्य पेश किए, जबकि बचाव पक्ष की तरफ़ से कई दलीलें उठीं। अन्ततः लखनऊ की अतिरिक्त सत्र न्यायालय ने कई मामलों में राजा और उसके साथी को उम्रकैद की सजा सुनाई; कुछ पीड़ित परिवारों ने सर्वोच्च न्यायालय तक फांसी की मांग उठाई है और अपीलें जारी हैं। न्यायिक फैसले के पल में भी समुदाय की पीड़ा कम नहीं हुई-जहाँ एक ओर अदालत ने कड़ी सजा दी, वहीं परिवारों की मांग अभी भी सजा-ए-मौत तक जा पहुँची है। इस पूरे प्रकरण ने कानूनी व्यवस्था, मानसिक स्वास्थ्य मॉनिटरिंग, पुलिस-सामुदायिक तालमेल और मीडिया की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े किए। साथ ही यह घटना हमें यह भी याद दिलाती है कि किसी भी तरह के अंधविश्वास और सामाजिक द्वेष को हिमायत देने वाली मानसिकता को रोकने के लिए सामाजिक जागरूकता और समय पर हस्तक्षेप कितना ज़रूरी है।




