गोरखपुर, बस्ती और आजमगढ़ मंडल की 32 विधानसभा सीटों पर सैंथवार समाज की प्रभावी भूमिका को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। फरवरी 2024 में चंपा देवी पार्क में आयोजित भागीदारी महारैली से लेकर हाल ही में पार्क रोड स्थित 95 हजार वर्ग फीट जमीन और स्व. केदार सिंह की प्रतिमा विवाद ने इस समाज की राजनीतिक मुखरता को सुर्खियों में ला दिया है। सैंथवार मल्ल महासभा का दावा है कि आठ लोकसभा क्षेत्रों में उनकी बड़ी संख्या है और 32 विधानसभा क्षेत्रों में मतदाता समीकरण को बदलने की क्षमता रखते हैं। हालांकि, सवाल यह है कि क्या जातीय अस्मिता के नाम पर समाज का वोट एकतरफा डायवर्ट हो पाएगा। विश्लेषक मानते हैं कि पिछले चुनावों के अनुभव बताते हैं कि भावनात्मक अपील के बावजूद वोटों का ट्रांसफर पूरी तरह संभव नहीं हुआ। उदाहरण के तौर पर, सपा ने अतीत में सैंथवार समाज से आने वाले उम्मीदवारों को टिकट दिया लेकिन जीत नहीं दिला पाई।
भाजपा से जुड़ाव और नेतृत्व की मौजूदगी
राजनीतिक समीकरण में सैंथवार समाज को भाजपा का कोर वोटर माना जाता है। क्षेत्रीय राजनीति में इस समाज के कई बड़े नेता भाजपा में सक्रिय हैं। पिपराइच के विधायक महेंद्र पाल सिंह लगातार दो बार जीत चुके हैं, जबकि युधिष्ठिर सिंह भाजपा जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। डॉ. धर्मेंद्र सिंह प्रदेश उपाध्यक्ष और एमएलसी के रूप में प्रभावी भूमिका निभाते हैं। पूर्व मंत्री जीएम सिंह भी भाजपा से जुड़े रहे और उनकी पत्नी सहजनव नगर पंचायत अध्यक्ष हैं। कुशीनगर से पूर्व केंद्रीय मंत्री आरपीएन सिंह भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं और समाज में उनकी अच्छी पकड़ है। ऐसे में जातीय संगठन की मुखरता के बावजूद सैंथवार मतदाताओं का झुकाव भाजपा से दूर करना मुश्किल दिखाई देता है। यही वजह है कि विशेषज्ञ मानते हैं कि समाज का प्रभाव दिखाने की कोशिशें भले ही जारी रहें, पर एकतरफा राजनीतिक डायवर्जन की संभावना कम है।
प्रतिमा विवाद से बनी नई पृष्ठभूमि
स्व. केदार सिंह की प्रतिमा हटाने की चर्चा ने सैंथवार समाज को भावनात्मक रूप से जोड़ने का नया मुद्दा दे दिया है। केदार सिंह समाज के लिए आरक्षण दिलाने वाले नेता माने जाते हैं और उनकी स्मृति में प्रतिमा स्थापित की गई थी। अब जब परिवार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर मकान खाली कर दिया है और दुकानों को भी हटाया जा रहा है, तो प्रतिमा का मसला राजनीतिक दबाव बनाने का जरिया बन रहा है। सैंथवार महासभा का कहना है कि प्रतिमा को छेड़ने पर पूरे समाज की प्रतिक्रिया सामने आएगी। लेकिन अतीत के अनुभव यह भी बताते हैं कि केवल जातीय अस्मिता के नाम पर मतदाताओं का रुझान बदलना आसान नहीं है, क्योंकि समाज के प्रभावशाली नेता भाजपा में ही सक्रिय हैं।
सैंथवार मतदाताओं की संख्या इतनी अधिक है कि अगर उनका रुझान सचमुच बदलता है तो कई सीटों का नतीजा प्रभावित हो सकता है। मगर फिलहाल के हालात बताते हैं कि भाजपा से गहरे जुड़ाव और लंबे समय से एकतरफा समर्थन के कारण समाज का वोट पूरी तरह डायवर्ट होना कठिन है। राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि संगठन की सक्रियता दबाव तो बना सकती है, पर चुनावी परिणामों में एकतरफा असर डालने की स्थिति फिलहाल स्पष्ट नहीं दिखती।