गोरखपुर, उत्तर प्रदेश – गोरखपुर विश्वविद्यालय और उससे संबद्ध महाविद्यालयों में बीएड पाठ्यक्रम की स्थिति इस वर्ष बेहद चिंताजनक रही। सामान्य काउंसिलिंग के दो चरणों और पूल काउंसिलिंग के बावजूद प्रवेश का हाल यह है कि कुल 9377 सीटों में से 7885 सीटें खाली रह गई हैं। यानी 84 प्रतिशत सीटें नहीं भर सकीं। खास बात यह है कि ये सभी खाली सीटें स्व-वित्तपोषित कॉलेजों की हैं, जबकि वित्तपोषित कॉलेजों की 330 सीटें पूरी तरह भर गईं। यह अंतर इस ओर इशारा करता है कि छात्र अब महंगे स्व-वित्तपोषित संस्थानों से दूरी बना रहे हैं और उन्हें बीएड पाठ्यक्रम में करियर की संभावना पहले जैसी आकर्षक नहीं लग रही। कई कॉलेजों में तो दाखिले का खाता भी नहीं खुला, जबकि 41 कॉलेजों में प्रवेश का आंकड़ा दहाई तक भी नहीं पहुंच सका। इससे स्पष्ट है कि बीएड पाठ्यक्रम का आकर्षण युवाओं में तेजी से घटा है और इसका सीधा असर निजी कॉलेजों के अस्तित्व पर पड़ रहा है।
स्व-वित्तपोषित कॉलेजों में संकट गहराया
स्व-वित्तपोषित कॉलेजों की स्थिति और भी खराब दिखाई दे रही है। दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय से संबद्ध 12 कॉलेजों में एक भी दाखिला नहीं हो सका। वहीं, अधिकांश कॉलेजों में चार से छह ही प्रवेश दर्ज हुए हैं। इस वजह से कॉलेज प्रबंधन अब सीधा प्रवेश लेकर सीटें भरने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सफलता की उम्मीद बेहद कम है। भारी फीस, रोजगार के सीमित अवसर और प्रतियोगी परीक्षाओं पर युवाओं का बढ़ता झुकाव इस संकट की बड़ी वजह मानी जा रही है। ऐसे हालात में कई स्व-वित्तपोषित कॉलेज अब बीएड पाठ्यक्रम को बंद करने की योजना बना रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर यह रुझान इसी तरह जारी रहा तो आने वाले वर्षों में बीएड की डिग्री कराने वाले निजी संस्थानों की संख्या और घट सकती है।
युवाओं का बीएड से मोहभंग और भविष्य की चुनौती
बीएड सीटों के खाली रहने से साफ है कि युवा अब इस पाठ्यक्रम को लेकर उत्साहित नहीं हैं। आंकड़े बताते हैं कि बीएड कला संवर्ग की 5810 सीटें और विज्ञान संवर्ग की 2045 सीटें खाली रह गईं। इसका अर्थ है कि शिक्षा के दोनों ही क्षेत्रों में रुचि घटी है। शिक्षा जगत के जानकारों का मानना है कि बेरोजगारी की समस्या और शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया में लगातार आ रही रुकावटों ने युवाओं का भरोसा कमजोर कर दिया है। पहले जहां बीएड को स्थायी नौकरी का रास्ता माना जाता था, वहीं अब प्रतियोगी परीक्षाओं और अन्य पेशेवर पाठ्यक्रमों की ओर रुझान बढ़ रहा है। यदि स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो शिक्षा क्षेत्र में प्रशिक्षित अध्यापकों की संख्या कम हो सकती है और लंबे समय में इसका असर स्कूलों की गुणवत्ता पर भी देखने को मिलेगा। इस संकट से उबरने के लिए सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन को न केवल फीस संरचना की समीक्षा करनी होगी, बल्कि रोजगार के अवसर बढ़ाने और भर्ती प्रक्रियाओं को पारदर्शी बनाने की दिशा में भी ठोस कदम उठाने होंगे। कुल मिलाकर, यूपी में बीएड पाठ्यक्रम आज एक बड़े संकट से गुजर रहा है और अगर समय रहते सुधारात्मक उपाय नहीं किए गए तो यह स्थिति और भी गंभीर हो सकती है।




