1987 से शुरू हुई परंपरा और गोरखपुर में लोकप्रियता
गोरखपुर में इस बार नवरात्र उत्सव में दुर्गा पूजा के पंडालों में ऑटोमैटिक और इको-फ्रेंडली मूर्तियों का विशेष आयोजन किया गया। ये मूर्तियां न केवल लोगों का आकर्षण बन रही हैं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी दे रही हैं। ऐसी मूर्तियों को दशहरे के बाद सुरक्षित रखा जाता है और अगले वर्ष फिर से पंडालों में सजाया जाता है। इस परंपरा की शुरुआत 1987 में हुई थी, जब लखनऊ यूनिवर्सिटी के फाइन आर्ट्स छात्र सुशील गुप्ता ने पहली स्वचालित मूर्ति बनाई और इसे माया बाजार में स्थापित किया। धीरे-धीरे यह परंपरा गोरखपुर और आसपास के जिलों में लोकप्रिय हो गई और अब कई पंडालों में पर्यावरण-संरक्षण के संदेश के साथ ऑटोमैटिक मूर्तियां लगाई जा रही हैं।
कलाकारों की पहल और पर्यावरण संरक्षण
सुशील गुप्ता और उनके साथ काम कर रहे मूर्तिकार भास्कर विश्वकर्मा ने बताया कि बचपन से ही मूर्ति बनाने का शौक होने के कारण उन्होंने इको-फ्रेंडली और स्वचालित मूर्तियां बनाना शुरू किया। ये मूर्तियां फाइबर और अन्य पर्यावरण-हितैषी पदार्थों से बनाई जाती हैं और विसर्जन के दौरान जल प्रदूषण नहीं फैलातीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान से प्रेरणा लेकर यह पहल आगे बढ़ाई गई। इन मूर्तियों का थीम-आधारित डिज़ाइन बच्चों और दर्शकों के लिए सीखने का माध्यम भी बनता है, जिससे उन्हें धर्म, संस्कृति और परंपराओं की जानकारी मिलती है।
प्रशासन की सख्ती और मूर्तियों की विशेषताएं
कोर्ट और राज्य सरकार ने पारंपरिक मूर्तियों में हानिकारक रंग और प्रदूषण फैलाने वाली सामग्री पर रोक लगाई है। इसके बाद कलाकार अब पूरी तरह से इको-फ्रेंडली और स्वचालित मूर्तियों पर ध्यान दे रहे हैं। इन मूर्तियों का विसर्जन नदी या तालाब में नहीं किया जाता, जिससे पानी प्रदूषित नहीं होता। दशहरे के बाद इन्हें सुरक्षित रखा जाता है और अगले साल पुनः पंडालों में सजाया जाता है। इस तरह गोरखपुर में नवरात्र उत्सव न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है, बल्कि पर्यावरण जागरूकता का भी संदेश फैलाता है और बच्चों सहित सभी दर्शकों के लिए आकर्षक और शिक्षाप्रद अनुभव बनता है।