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Gorakhpur News : गोरखपुर में 80 साल पुरानी अनोखी परंपरा, क्षत्रीय आज अर्पित करेंगे अपना रक्त मां दुर्गा को

Gorakhpur news in hindi : बांसगांव के श्रीनेत वंशीयों द्वारा शारदीय नवरात्र और रामनवमी के अवसर पर सदियों पुरानी श्रद्धा का अद्वितीय आयोजन

Devotees offering blood to Goddess Durga in Gorakhpur tradition | Gorakhpur News

गोरखपुरउत्तर प्रदेश – गोरखपुर जिले के बांसगांव में श्रीनेत वंशीय क्षत्रीयों द्वारा अपनाई गई परंपरा धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बेहद अनोखी मानी जाती है। शारदीय नवरात्र और रामनवमी के अवसर पर प्राचीन ऐतिहासिक दुर्गा मंदिर में यह परंपरा आज भी जीवित है, जहां श्रद्धालु अपने शरीर से निकाले गए रक्त को मां दुर्गा को अर्पित करते हैं। यह आयोजन दोपहर के समय मंदिर परिसर में शुरू होता है, जहां प्रत्येक पीढ़ी के लोग नवजात शिशु से लेकर बुजुर्ग तक नए वस्त्र धारण कर मंदिर पहुँचते हैं और श्रद्धा पूर्वक यह अनुष्ठान संपन्न करते हैं। पारंपरिक पशु बलि की जगह अब शरीर से रक्त अर्पित करने की यह रीत आज भी सुरक्षित और धार्मिक विश्वास के साथ निभाई जाती है।

श्रद्धालुओं का विश्वास और अनुष्ठान की विधि

इस परंपरा में विशेष रूप से विवाहित पुरुष शरीर के नौ अलग-अलग स्थानों से रक्त निकालकर माता को अर्पित करते हैं, जबकि अविवाहित युवक, किशोर और नवजात शिशु केवल ललाट पर ही रक्त अर्पित करते हैं। मंदिर परिसर में कतारबद्ध खड़े नाई अपने हाथों में उस्तरा लिए श्रद्धालुओं के चीरे लगाते हैं। निकले हुए रक्त को बेलपत्र पर एकत्र किया जाता है और मंदिर की घंटियों एवं घड़ियाल की ध्वनि के बीच श्रद्धालु “जय माता दी” के जयकारे लगाते हुए इसे मां के चरणों में अर्पित करते हैं। स्थानीय लोगों और दूर-दूर से आए श्रद्धालुओं का विश्वास है कि इस अवसर पर मांगी गई इच्छाएँ पूरी होती हैं। यही कारण है कि देश-विदेश में बसे श्रीनेत वंशीय क्षत्रिय इस अनुष्ठान में शामिल होने के लिए बांसगांव अवश्य पहुंचते हैं।

परंपरा की उत्पत्ति और इतिहास

इस अनोखी प्रथा की शुरुआत वर्ष 1945 में हुई थी। इससे पहले नवमी तिथि पर मंदिर में भैंसा, भेड़ा, बकरा और सूअर के बच्चे की बलि दी जाती थी। उस समय के समाजसेवी पंडित रामचंद्र शर्मा (वीर) ने पशु बलि का विरोध करते हुए कहा कि यह महापाप के समान है। उनके आग्रह के बावजूद जब समाज ने इस पर ध्यान नहीं दिया, तो उन्होंने नीम के पेड़ के नीचे अनशन पर बैठकर शांति पूर्वक अपनी अपील जारी रखी। अंततः समाज ने उनके सुझाव को स्वीकार किया और पशु बलि के स्थान पर अपनी देह से निकले रक्त को अर्पित करने की परंपरा आरंभ हुई। आज भी यह रीत क्षत्रिय समाज में श्रद्धा और त्याग के प्रतीक के रूप में सम्मानित है और हर वर्ष बिना किसी बदलाव के निभाई जाती है।

यह परंपरा न केवल धार्मिक श्रद्धा का प्रतीक है बल्कि सामाजिक चेतना और अहिंसा की ओर बढ़ते कदम का उदाहरण भी है। शारदीय नवरात्र और रामनवमी के अवसर पर आयोजित यह अनुष्ठान बांसगांव के सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न हिस्सा बन चुका है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी अपने स्वरूप और महत्व को बनाए रखता है।

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