हालिया रिपोर्ट में जब पहली बार बिहार के फेज-1 के 1,314 नामों का आधिकारिक दस्तावेज़ी मूल्यांकन किया गया, तो जो तस्वीर उभरी वह चुनावी परिदृश्य की गंभीरता को उजागर करती है। ऑर्गनाइजेशन फॉर डेवलपमेंट और रिपोर्टिंग (ADR)-बिहार इलेक्शन वाच के अध्ययन के दौरान यह सामने आया कि जिन 1,303 उम्मीदवारों के हलफनामों का विश्लेषण हुआ, उनमें से लगभग 32 प्रतिशत ने अपने ऊपर किसी न किसी प्रकार के आपराधिक मामलों का खुलासा किया। विशेष रूप से गंभीर धाराओं वाली प्रविष्टियाँ-जिनमें हत्या, हत्या के प्रयास और महिलाओं के साथ जुड़े गंभीर अपराध शामिल हैं-काफी चिंताजनक रहीं: कुल 354 उम्मीदवारों पर ऐसे गंभीर मुकदमों का विवरण था, जिनमें 33 पर हत्या, 86 पर हत्या के प्रयास और 42 पर महिलाओं के खिलाफ संबंधित केस दर्ज बताए गए। इसके अलावा दो उम्मीदवारों ने स्वयं अपने ऊपर रेप (बलात्कार) से जुड़ा मामला दर्ज होना घोषित किया है। यह आँकड़ा भारतीय लोकतंत्र की देहाती राजनीति में कानून-व्यवस्था और नैतिक मानकों पर उठ रहे प्रश्नों का द्योतक है और मतदाता के निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। राजनीतिक दलों के स्तर पर यह संकेत मिलता है कि कुछ छोटे और वामपंथी गठबंधन-भागीदारों में भी इन शिकायतों की दर अधिक है-सीपीएम तथा सीपीआई जैसे दलों के प्रत्याशियों में गंभीर आरोपों का प्रतिशत उल्लेखनीय रहा-जो यह दिखाता है कि आपराधिक रिकॉर्ड किसी एक पार्टी का विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि व्यापक राजनीतिक व्यवहार का एक हिस्सा बन चुका है।
पार्टीवार विभाजन, संपत्ति की असमानता व महिलाओं की न्यून भागीदारी
रिपोर्ट ने पार्टियों के बीच आपराधिक मामलों के प्रतिशत को भी स्पष्ट किया है-राजनीतिक दलों में अंतर के बावजूद कई मुख्य दलों में ऐसे आरोपों की उपस्थिति उच्च रही। उदाहरण के लिए आरजेडी के 60% प्रत्याशियों ने गंभीर धाराओं के मामलों का सामना किया हुआ दिखाया, वहीं भाजपा के 56% उम्मीदवारों के नाम भी इसी श्रेणी में आए। कांग्रेस और जदयू जैसे बड़े दलों में भी कुछ हद तक ऐसे मामलों की मौजूदगी रही-यह संकेत देता है कि क्षेत्रीय समीकरणों और स्थानीय राजनीतिक गढ़ों में शक्ति की लड़ाई अक्सर नियमों की सीमाओं को पार कर जाती है। संपत्ति के संदर्भ में रिपोर्ट और भी बताती है कि चुनावी मैदान पर आर्थिक असमानता स्पष्ट है: कुल 1,303 उम्मीदवारों में से 519 यानी करीब 40% ऐसे थे जिनकी संपत्ति करोड़ों में दर्ज थी और औसत संपत्ति 3.26 करोड़ के आसपास निकली। अधिकांश करोड़पति उम्मीदवारों की शैक्षिक योग्यता सिर्फ 5वीं से 12वीं तक सीमित रही-यह तथ्य पारंपरिक अपेक्षाओं को चुनौती देता है कि उच्च संपत्ति और उच्च शिक्षा स्वीकृत साथी हों। संभावित निष्कर्ष यह है कि धन-बल और स्थानीय सामाजिक नेटवर्क चुनावी उपलब्धि में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। वहीं दलगत और समग्र प्रतियोगिता में महिलाओं की भागीदारी केवल 9% रही, जो प्रतिनिधित्व-यात्रा की कमी और स्थानीय राजनीति में महिलाओं के सीमित प्रवेश को दर्शाती है।
प्रमुख व्यक्तियों के हलफनामों से मिली अंदरूनी जानकारी और चुनावी निहितार्थ
रिपोर्ट में कई प्रभावशाली पदाधिकारियों और मंत्रियों के हलफनामों का विशद विवरण भी शामिल है, जिससे उपयोगी तुलना और राजनीतिक अर्थनिर्णय संभव हुआ। उदाहरण के तौर पर कुछ वरिष्ठ नेताओं की संपत्ति और उनके ऊपर दर्ज आपराधिक मामले जुड़ी जानकारी सार्वजनिक हुई-कुछ नेताओं के पास करोड़ों की संपत्ति होने के साथ हथियारों का जिक्र और दर्ज मुकदमों का विवरण भी दिखा। कई मामलों में देखा गया कि मंत्रियों और प्रभावशाली उम्मीदवारों की संपत्ति पाँच वर्षों में उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है, तो कहीं आय-स्रोतों में उतार-चढ़ाव का ब्योरा उनके राजनीतिक करियर की स्थानीय विशेषताओं को रेखांकित करता है। यह सब मतदाताओं के लिए महत्वपूर्ण संकेत हैं: हलफनामे न सिर्फ धन-वितरण के पैमाने का पता देते हैं, बल्कि उन कागजातों के जरिये सामाजिक-राजनैतिक आचरण और नैतिकता का भी आकलन संभव होता है। चुनावी रणनीतिक रूप से, ऐसे आँकड़े विपक्ष और मीडिया दोनों के लिए हथियार बने रहेंगे-जहाँ एक ओर संपत्ति और अपराध के रिकॉर्ड से प्रत्याशियों की छवि पर सवाल उठेंगे, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक दल इन आँकड़ों का उपयोग विरोधियों पर हमला करने और स्व-प्रचार के उपकरण के रूप में करेंगे। समग्र रूप में यह रिपोर्ट बिहार के पहले चरण के चुनाव को पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और कानून-व्यवस्था के व्यापक बहस के केंद्र में ला देती है, और चुनाव आयोग, समूचे राजनैतिक तंत्र तथा मतदाता दोनों के लिए यह स्पष्ट संदेश है कि प्रत्याशी-चयन और सार्वजनिक जवाबदेही पर गंभीर विचार की आवश्यकता है। यह भी संभावना है कि आगामी दिनों में यह रिपोर्ट न्यायिक या विधायी स्तर पर भी चर्चा का विषय बने और चुनावी सुधारों की मांग तेज हो।




