कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गांव में हुआ। अत्यंत गरीबी और कठिन परिस्थितियों में बड़े हुए कर्पूरी के माता-पिता चाहते थे कि वे पारंपरिक नाई का काम करें, लेकिन कर्पूरी ने अपनी पढ़ाई की ओर रुचि दिखाई। आठ साल की उम्र में उनका विवाह हो गया, लेकिन शिक्षा का सफर जारी रहा। मैट्रिक की परीक्षा में उन्होंने अपने पिता के संघर्ष और जमींदारों के सामने हिम्मत का परिचय देते हुए प्रथम डिवीजन में पास किया। शिक्षा के दौरान उन्होंने रामधारी सिंह दिनकर, शिवपूजन सहाय और गोपाल सिंह नेपाली जैसे साहित्यकारों की रचनाएं पढ़ीं, जो उनके सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण के विकास में सहायक रही। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेकर उन्होंने देश की आजादी के लिए संघर्ष किया और नेपाल में अंडरग्राउंड प्रशिक्षण प्राप्त किया। इस दौरान जयप्रकाश नारायण की शिक्षाओं से प्रभावित होकर उन्होंने समाजवादी विचारधारा को अपनाया।
राजनीति और मुख्यमंत्री बनने की कहानी
आजादी के बाद कर्पूरी ठाकुर ने ताजपुर से चुनाव लड़ा और विजयी होकर राजनीति में स्थायी स्थान बनाया। 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के डिप्टी मुख्यमंत्री बने, और शिक्षा मंत्रालय में कई सुधार किए। उन्होंने 10वीं बोर्ड परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर दी, जिससे गरीब और पिछड़े वर्ग के छात्रों को लाभ मिला। 1970 में पहली बार मुख्यमंत्री बने और वृद्धावस्था पेंशन योजना लागू की। 1977 में जनता पार्टी की जीत के बाद दूसरी बार मुख्यमंत्री पद पर पहुंचे। उनकी सरकार ने पिछड़ों, महिलाओं और आर्थिक रूप से कमजोर ऊंची जातियों के लिए आरक्षण की घोषणा की, जिससे समाज में बड़े पैमाने पर विवाद और विरोध भी हुआ। हालांकि उनका उद्देश्य समाज में न्याय और समान अवसर प्रदान करना था।
विरोध, संघर्ष और राजनीतिक विरासत
कर्पूरी ठाकुर के कार्यकाल में कई विरोध और संकट आए। मंत्रिमंडल विस्तार, अविश्वास प्रस्ताव और विरोधी दलों के प्रयासों के बावजूद उन्होंने जनता के हित में निर्णय लिए। उनकी लोकप्रियता और सिद्धांतों के कारण वे विपक्ष में भी सम्मानित नेता बने रहे। उन्होंने अपने जीवन में व्यक्तिगत लाभ की बजाय समाज और गरीबों के हित को प्राथमिकता दी। उनके जीवन में कई राजनीतिक साजिशें और व्यक्तिगत हमले भी आए, लेकिन उन्होंने कभी अपने सिद्धांत नहीं छोड़े। 17 फरवरी 1988 को कर्पूरी ठाकुर का निधन हार्ट अटैक से हुआ। उनके योगदान को सम्मान देते हुए उनके गांव पितौंझिया का नाम कर्पूरी ग्राम किया गया और उनके स्मृति भवन का निर्माण किया गया। आज भी कर्पूरी ठाकुर को बिहार और देश में सामाजिक न्याय और पिछड़े वर्ग के उत्थान का प्रतीक माना जाता है।




