24 अक्टूबर को समस्तीपुर में आयोजित चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर अपने विचार साझा किए। उन्होंने NDA सरकार बनाने के महत्व और गठबंधन के संकल्प पर जोर दिया, लेकिन अपने 45 मिनट के भाषण में एक भी बार स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा कि अगले मुख्यमंत्री कौन होंगे। यह अब तक की परंपरा से अलग है, क्योंकि 2020 में पीएम मोदी हर मंच पर नीतीश कुमार को अगला मुख्यमंत्री घोषित करने का नारा लगाते थे। इस बार सिर्फ यह कहा गया कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, जिससे राजनीतिक गलियारे में कयास और संशय की स्थिति बनी है। अमित शाह ने भी विभिन्न इंटरव्यू में यही दोहराया कि मुख्यमंत्री का निर्णय चुनाव के बाद गठबंधन सहयोगियों द्वारा तय किया जाएगा। इन बयानों ने भाजपा समर्थकों में सवाल पैदा कर दिया है कि आखिर इस बार पार्टी नेतृत्व क्यों सीधे CM फेस का नाम घोषित नहीं कर रहा।
भाजपा की रणनीति और पिछले चुनावों का अनुभव
विशेषज्ञों का मानना है कि भाजपा ने यह रणनीति पिछले चुनावों से सीखी है। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और असम में भी भाजपा ने चुनाव के दौरान अलग-अलग नेतृत्व की बात की, लेकिन मुख्यमंत्री बनने वाले नेता अलग रहे। बिहार में भी यही पैटर्न अपनाया जा रहा है। भाजपा चाहती है कि नीतीश कुमार नाराज न हों और उनका वोट बैंक कायम रहे, जबकि पार्टी खुद अपना मुख्यमंत्री घोषित करने की स्थिति भी बनाए रखे। सीनियर जर्नलिस्ट इंद्रभूषण के अनुसार, पार्टी धीरे-धीरे स्थिति मजबूत करती हुई रणनीति पर आगे बढ़ रही है, ताकि किसी भी तरह के विवाद से बचा जा सके। पीएम मोदी ने सभा की शुरुआत दिवंगत कर्पूरी ठाकुर को श्रद्धांजलि देकर की, जो दर्शाता है कि पार्टी पुरानी विरासत और भावनाओं का भी चुनावी लाभ लेने की कोशिश कर रही है।
नीतीश कुमार की भूमिका और बिहार की सियासी मजबूरी
नीतीश कुमार के पास बिहार में कोयरी, कुर्मी और महादलित जैसे महत्वपूर्ण समुदायों में कम से कम 15% वोट शेयर है। उनके बिना NDA की स्थिति कमजोर हो सकती है। इसके अलावा, बिहार की राजनीति में गठबंधन जरूरी है। 2010 और 2020 के विधानसभा चुनावों में देखा गया कि नीतीश कुमार जहां गए, सरकार वहीं बन गई। 2015 में भाजपा ने नीतीश से अलग लड़ाई लड़ी और हार का सामना किया। यही कारण है कि भाजपा इस बार भी नीतीश के नेतृत्व को बनाए रखना चाहती है, लेकिन CM फेस घोषित करने में संकोच कर रही है। राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि यह रणनीति भाजपा को दोहरे लाभ की स्थिति देती है: नीतीश कुमार के वोट बैंक को सुरक्षित रखना और चुनाव जीतने के बाद अपना पसंदीदा मुख्यमंत्री चुनने की संभावना बनाए रखना। बिहार में यह संतुलन बनाए रखना पार्टी के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है, और यही सियासी चतुराई इस चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता बनती जा रही है।




