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RSS के 100 साल: मुसलमानों को लेकर संघ की सोच कैसे बदली, हेडगेवार से भागवत तक की यात्रा

संघ की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा में मुस्लिमों की भूमिका—संस्थापकों की सख़्त राय से लेकर आज के संवाद और सहअस्तित्व की कोशिश तक

RSS 100 years journey and its views on Muslims in India

संघ की स्थापना और शुरुआती दौर में मुस्लिमों के प्रति दृष्टिकोण

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना वर्ष 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में की थी। उस समय देश में खिलाफत आंदोलन और हिंदू-मुस्लिम एकता के नारों का दौर था। गांधीजी ने इस आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन हेडगेवार इसके खिलाफ थे। उनका मानना था कि मुसलमानों के लिए धर्म सबसे ऊपर है और यह सोच राष्ट्रीय हितों से टकराती है। कांग्रेस में रहते हुए भी वे इस बात से असहज थे कि पार्टी मुस्लिमों के तुष्टीकरण की राजनीति कर रही है। यही वजह थी कि संघ की नींव रखते समय हेडगेवार ने हिंदू एकता और संगठन को सर्वोपरि रखा और मुस्लिमों को लेकर उनका दृष्टिकोण काफी सख्त था। उन्होंने अपने विचारों में मुसलमानों को यवन सर्प तक कह डाला, जो दर्शाता है कि शुरुआती दौर में RSS और मुस्लिम समाज के बीच दूरी गहरी थी। उनके बाद आए माधवराव सदाशिव गोलवलकर, जिन्हें संघ का सबसे प्रभावशाली विचारक माना जाता है, उन्होंने अपनी पुस्तक Bunch of Thoughts में भी मुस्लिमों पर तीखा प्रहार किया और कहा कि भारत का इतिहास पिछले 1200 वर्षों से धर्मयुद्ध का गवाह रहा है, जिसमें मुसलमान लगातार हिंदुओं को दबाने की कोशिश करते रहे। हालांकि समय के साथ गोलवलकर ने भी माना कि घाव भरने की क्षमता हिंदू समाज में है और सहअस्तित्व की राह संभव है।

बदलते समय के साथ संघ का दृष्टिकोण और मुस्लिम सहभागिता

1970 के दशक के उत्तरार्ध तक आते-आते RSS का रुख कुछ बदला। तत्कालीन संघ प्रमुख बाला साहब देवरस ने खुलकर कहा कि मुसलमान भी राष्ट्र जीवन का हिस्सा हो सकते हैं और उनके लिए संघ के द्वार खुले होने चाहिए। इसके बाद मुस्लिमों को संगठनात्मक रूप से जोड़ने की प्रक्रिया शुरू हुई। 1979 से कई मुस्लिम छात्र संघ संचालित विद्यालयों में पढ़ने लगे और संघ से जुड़े कार्यक्रमों में मुस्लिम परिवार भी लाभान्वित होने लगे। धीरे-धीरे मुस्लिम स्वयंसेवकों ने प्रशिक्षण लेकर प्रचारक की भूमिका निभाना शुरू किया। इसी क्रम में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच (MRM) की स्थापना हुई, जो भले ही RSS की औपचारिक शाखा नहीं है, लेकिन उसकी विचारधारा और नेतृत्व संघ से ही प्रेरित है। इसका उद्देश्य हिंदू-मुस्लिम के बीच की खाई को पाटना और संवाद को बढ़ावा देना है। हालांकि, इस दौरान विवाद भी सामने आए—जैसे 2015 में MRM द्वारा आयोजित इफ्तार पार्टी में पाकिस्तान के राजनयिक की मौजूदगी ने सवाल खड़े किए और RSS को सफाई देनी पड़ी। इसके बावजूद, यह तथ्य निर्विवाद है कि बीते दशकों में RSS ने मुस्लिम समाज को जोड़ने की कई पहल की हैं और उसे लेकर उसका नजरिया पहले जैसा कठोर नहीं रहा।

वर्तमान RSS और सहअस्तित्व का संदेश

हाल के वर्षों में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने लगातार ऐसे बयान दिए हैं जो मुस्लिम समाज के प्रति बदलती सोच को दर्शाते हैं। जुलाई 2021 में उन्होंने साफ कहा था कि यदि कोई हिंदू यह मानता है कि मुसलमान भारत में नहीं रह सकते तो वह सच्चा हिंदू नहीं है। इसके बाद सितंबर 2021 में उनका वक्तव्य आया कि हिंदू और मुस्लिम एक ही वंश के हैं और हर भारतीय नागरिक व्यापक अर्थ में हिंदू है। इसी तरह जून 2022 में उन्होंने ज्ञानवापी विवाद पर संयमित टिप्पणी की कि हर मस्जिद में शिवलिंग खोजने की आवश्यकता नहीं है, झगड़ा बढ़ाने की बजाय सहअस्तित्व पर ध्यान देना चाहिए। इन बयानों से स्पष्ट है कि आज का RSS मुसलमानों को विरोधी नहीं बल्कि साझेदार के रूप में देखना चाहता है। संघ की परिकल्पना अब हिंदू राष्ट्र तक सीमित नहीं रह गई, बल्कि वह चाहता है कि उसमें मुस्लिम भी समान हिस्सेदार हों। सवाल यह जरूर है कि मुस्लिम समाज इसे कितना स्वीकार करता है, लेकिन यह तय है कि 100 वर्षों की यात्रा में RSS की सोच कठोरता से संवाद और सहअस्तित्व की दिशा में बदली है। यह बदलाव केवल संगठन के भीतर नहीं, बल्कि देश की बदलती सामाजिक और राजनीतिक ज़रूरतों का भी प्रतिबिंब है।

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